मेरी एक नानी थीं। जाहिर है। पर मैंने उन्हें कभी देखा नहीं। मेरी माँ की शादी होने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई थी। शायद नानी से कहानी न सुन पाने के कारण बाद में, हम तीन बहिनों को खुद कहानियाँ कहनी पड़ीं। नानी से कहानी भले न सुनी हो, नानी की कहानी जरूर सुनी और बहुत बाद में जाकर उसका असली मर्म समझ में आया। पहले इतना ही जाना कि मेरी नानी, पारंपरिक, अनपढ़, परदानशीं औरत थीं, जिनके पति शादी के तुरंत बाद उन्हें छोड़कर बैरिस्ट्री पढ़ने विलायत चले गए थे। कैंब्रिज विश्वविद्यालय से डिग्री लेकर जब वे लौटे और विलायती रीति-रिवाज के संग जिंदगी बसर करने लगे तो, नानी के अपने रहन-सहन पर, उसका कोई असर नहीं पड़ा, न उन्होंने अपनी किसी इच्छा-आकांक्षा या पसंद-नापंसद का इजहार पति पर कभी किया। पर जब कम-उम्र में नानी ने खुद को मौत के करीब पाया तो, पंद्रह वर्षीय इकलौती बेटी ‘मेरी माँ’ की शादी की फिक्र ने इतना डराया कि वे एकदम मुँहजोर हो उठीं। नाना से उन्होंने कहा कि वे परदे का लिहाज छोड़कर उनके दोस्त स्वतंत्रता-सेनानी प्यारेलाल शर्मा से मिलना चाहती हैं। सब दंग-हैरान रह गए। जिस परदानशीं औरत ने पराए मर्द से क्या, खुद अपने मर्द से मुँह खोलकर बात नहीं की थी, आखिरी वक्त में अजनबी से क्या कहना चाह सकती है? पर नाना ने वक्त की कमी और मौके की नजाकत की लाज रखी! सवाल-जवाब में वक्त बरबाद करने के बजाए फौरन जाकर दोस्त को लिवा लाए और बीबी के हुजूर में पेश कर दिया। अब जो नानी ने कहा, वह और भी हैरतअंगेज था। उन्होंने कहा, “वचन दीजिए कि मेरी लड़की के लिए वर आप तय करेंगे। मेरे पति तो साहब हैं और मैं नहीं चाहती मेरी बेटी की शादी, साहबों के फरमाबरदार से हो। आप अपनी तरह आजादी का सिपाही ढूँढ़कर उसकी शादी करवा दीजिएगा।” कौन कह सकता था कि अपनी आजादी से पूरी तरह बेखबर उस औरत के मन में देश की आजादी के लिए ऐसा जुनून होगा। बाद में मेरी समझ में आया कि दरअसल वे निजी जीवन में भी काफी आजाद-खयाल रही होंगी। ठीक है, उन्होंने नाना की जिंदगी में कोई दखल नहीं दिया, न उसमें साझेदारी की, पर अपनी जिंदगी को अपने ढंग से जीती जरूर रहीं। पारंपरिक, घरेलू, उबाऊ और खामोश जिंदगी जीने में, आज के हिसाब से, क्रांतिकारी चाहे कुछ न रहा हो दूसरे की तरह जीने के लिए मजबूर न होने में असली आजादी कुछ ज्यादा ही थी। खैर, इस तरह मेरी माँ की शादी ऐसे पढ़े-लिखे होनहार लड़के से हुई, जिसे आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेने के अपराध में आई.सी.एस. के इम्तिहान में बैठने से रोक दिया गया था और जिसकी जेब में पुश्तैनी पैसा-धेला एक नहीं था। माँ, बेचारी, अपनी माँ और गांधी जी के सिद्धांतों के चक्कर में सादा जीवन जीने और ऊँचे खयाल रखने पर मजबूर हुईं। हाल उनका यह था कि खादी की साड़ी उन्हें इतनी भारी लगती थी कि कमर चनका खा जाती। रात-रात भर जागकर वे उसे पहनने का अभ्यास करतीं, जिससे दिन में शर्मिंदगी न उठानी पड़े। वे कुछ ऐसी नाजुक थीं कि उन्हें देखकर उनकी सास यानी मेरी दादी ने कहा था, “हमारी बहू तो ऐसी है कि धोई, पोंछी और छींके पर टाँग दी।” गनीमत यही थी कि किसी ने उन्हें छींके पर से उतारने की पेशकश नहीं की। क्यों नहीं की, उसकी दो वजहें थीं। पहली यही कि हिंदुस्तान के तमाम वाशिंदों की तरह, उनके ससुरालवाले भी, साहबों से खासे अभिभूत थे और मेरे नाना पक्के साहब माने जाते थे। बस जात से वे हिंदुस्तानी थे, बाकी चेहरे-मोहरे, रंग-ढंग, पढ़ाई-लिखाई, सबमें अंग्रेज थे। मजे की बात यह थी कि हमारे देश में आजादी की जंग लड़ने वाले ही अंग्रेजों के सबसे बड़े प्रशंसक थे, गांधी-नेहरू हों या मेरे पिता जी के घरवाले। भले लड़का, आजादी की लड़ाई लड़ते, जेब खाली और शोहरत सिर करता रहे, दबदबा उसके साहबी ससुर का ही था। एक आन-बान-शान वाले साहब ने उनके सिरफिरे लड़के को अपनी नाजुक जान लड़की सौंपी, उससे रोमांचक क्या कोई परिकथा होती! नानी की सनकभरी आखिरी ख्वाहिश और नाना की रजामंदी, वे रोमांचक उपकथाएँ थीं, जो कहानी के तिलिस्म को और गाढ़ा बना चुकी थीं। दूसरी वजह माँ की अपनी शख्सियत थी। उनमें खूबसूरती, नजाकत, गैर-दुनियादारी के साथ ईमानदारी और निष्पक्षता कुछ इस तरह घुली-मिली थी कि वे परीजात से कम जादुई नहीं मालूम पड़ती थीं। उनसे ठोस काम करवाने की कोई सोच भी नहीं सकता था। हाँ, हर ठोस और हवाई काम के लिए उनकी जबानी राय जरूर माँगी जाती थी और पत्थर की लकीर की तरह निभाई भी जाती थी। मैंने अपनी दादी को कई बार कहते सुना था, “हम हाथी पे हल ना जुतवाया करते, हम पे बैल हैं।” बचपन में ही मुझे इस जुमले का भावार्थ समझ में आ गया था, जब देखा था कि, हम बच्चों की ममतालू परवरिश के मामले में माँ के सिवा घर के सभी प्राणी मुस्तैद रहते थे। दादी और उनकी जिठानियाँ ही नहीं, खुद-मर्दजात, पिता जी भी। पर ठोस काम न करने का यह मतलब नहीं था कि माँ को आजादी का जुनून कम था। वह भरपूर था और अपने तरीके से वे उसे भरपूर निभाती रही थीं। जाहिर है कि जब जुनून आजादी का हो तो, उसे निभाना भी आजादी से चाहिए। जिस-तिस से पूछकर, उसके तरीके से नहीं, खुद अपने तरीके से। हमने अपनी माँ को कभी भारतीय माँ जैसा नहीं पाया। न उन्होंने कभी हमें लाड़ किया, न हमारे लिए खाना पकाया और न अच्छी पत्नी-बहू होने की सीख दी। कुछ अपनी बीमारी के चलते