क्या लोकतांत्रिक शासन व्यवस्थाएँ शांति और सद्भाव का जीवन जीने में नागरिकों के लिए मददगार साबित होती हैं? लोकतांत्रिक व्यवस्था से यह उम्मीद करना उचित है कि वह सद्भावपूर्ण सामाजिक जीवन उपलब्ध कराएगी। हमने इससे पहले के अध्यायों में पाया कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ अनेक तरह के सामाजिक विभाजनों को सँभालती हैं। हमने पहले अध्याय में देखा कि किस तरह बेल्जियम ने अपने यहाँ के विभिन्न जातीय समूहों की आकांक्षाओं के बीच सफलतापूर्वक सामंजस्य स्थापित किया। लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ आम तौर पर अपने अंदर की प्रतिद्वंद्विताओं को सँभालने की प्रक्रिया विकसित कर लेती हैं। इससे इन टकरावों के विस्फोटक या हिंसक रूप लेने का अंदेशा कम हो जाता है। कोई भी समाज अपने विभिन्न समूहों के बीच के टकरावों को पूरी तरह और स्थायी रूप से नहीं खत्म कर सकता, पर हम इन अंतरों और विभेदों का आदर करना सीख सकते हैं और इनके बीच बातचीत से सामंजस्य बैठाने का तरीका विकसित कर सकते हैं। इस काम के लिए लोकतंत्र सबसे अच्छा है। गैर-लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ आमतौर पर अपने अंदरूनी सामाजिक मतभेदों से आँखें फेर लेती हैं या उन्हें दबाने की कोशिश करती हैं। इस प्रकार सामाजिक अंतर, विभाजन और टकरावों को सँभालना निश्चित रूप से लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का एक बड़ा गुण है, पर श्रीलंका का उदाहरण हमें इस बात की भी याद दिलाता है कि इस परिणाम को हासिल करने के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को स्वयं भी दो शर्तों को पूरा करना होता हैः यह गौर करना जरूरी है कि लोकतंत्र का सीधे-सीधे अर्थ बहुमत की राय से शासन करना नहीं है। बहुमत को सदा ही अल्पमत का ध्यान रखना होता है। उसके साथ काम करने की जरूरत होती है। तभी, सरकार जन-सामान्य की इच्छा का प्रतिनिधित्व कर पाती है। बहुमत और अल्पमत की राय कोई स्थायी चीज नहीं होती। यह भी समझना जरूरी है कि बहुमत के शासन का अर्थ धर्म, नस्ल अथवा भाषायी आधार के बहुसंख्यक समूह का शासन नहीं होता। बहुमत के शासन का मतलब होता है कि हर फैसले या चुनाव में अलग-अलग लोग और समूह बहुमत का निर्माण कर सकते हैं या बहुमत में हो सकते हैं। लोकतंत्र तभी तक लोकतंत्र रहता है जब तक, प्रत्येक नागरिक को किसी न किसी अवसर पर बहुमत का हिस्सा बनने का मौका मिलता है। अगर किसी को जन्म के आधार पर बहुसंख्यक समुदाय का हिस्सा बनने से रोका जाता है तब लोकतांत्रिक शासन उस व्यक्ति या समूह के लिए समावेशी नहीं रह जाता। व्यक्ति की गरिमा और आजादी के मामले में लोकतांत्रिक व्यवस्था किसी भी अन्य शासन प्रणाली से काफी आगे है। प्रत्येक व्यक्ति अपने साथ के लोगों से सम्मान पाना चाहता है। अक्सर, टकराव तभी पैदा होते हैं जब कुछ लोगों को लगता है कि उनके साथ सम्मान का व्यवहार नहीं किया गया। गरिमा और आजादी की चाह ही लोकतंत्र का आधार है। दुनिया भर की लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ इस चीज को मानती हैं-कम से कम सिद्धांत के तौर पर तो जरूर। अलग-अलग लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में इन बातों पर अलग-अलग स्तर का आचरण होता है। लोकतांत्रिक सरकारें सदा नागरिकों के अधिकारों का सम्मान नहीं करतीं। फिर, जो समाज लंबे समय तक गुलामी में रहे हैं उनके लिए यह एहसास करना आसान नहीं है कि सभी व्यक्ति बराबर हैं। यहाँ स्त्रियों की गरिमा का ही उदाहरण लें। दुनिया के अधिकांश समाज पुरुष- प्रधान समाज रहे हैं। महिलाओं के लंबे संघर्ष के बाद अब जाकर यह माना जाने लगा है कि महिलाओं के साथ गरिमा और समानता का व्यवहार लोकतंत्र की जरूरी शर्त है और आज अगर कहीं यह हालत है तो उसका यह मतलब नहीं कि औरतों के साथ सदा से सम्मान का व्यवहार हुआ है। बहरहाल, एक बार जब सिद्धांत रूप में इस बात को स्वीकार कर लिया गया है तो अब औरतों के लिए वैधानिक और नैतिक रूप से अपने प्रति गलत मान्यताओं और व्यवहारों के खिलाफ संघर्ष करना आसान हो गया है। अलोकतांत्रिक व्यवस्था में यह बात संभव न थी क्योंकि वहाँ व्यक्तिगत आजादी और गरिमा न तो वैधानिक रूप से मान्य है, न नैतिक रूप से। यही बात जातिगत असमानता पर भी लागू होती है। भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था ने कमजोर और भेदभाव का शिकार हुई जातियों के लोगों के समान दर्जे और समान अवसर के दावे को बल दिया है। आज भी जातिगत भेदभाव और दमन के उदाहरण देखने को मिलते हैं पर इनके पक्ष में कानूनी या नैतिक बल नहीं होता। संभवतः इसी अहसास के चलते आम लोग अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति ज्यादा चौकस हुए हैं। लोकतंत्र से लगाई गई उम्मीदों को किसी लोकतांत्रिक देश के मूल्यांकन का आधार भी बनाया जा सकता है। लोकतंत्र की एक खासियत है कि इसकी जाँच-परख और परीक्षा कभी खत्म नहीं होती। वह एक जाँच पर खरा उतरे तो अगली जाँच आ जाती है। लोगों को जब लोकतंत्र से थोड़ा लाभ मिल जाता है तो वे और लाभों की माँग करने लगते हैं। वे लोकतंत्र से और अच्छा काम चाहते हैं। यही कारण है कि जब हम उनसे लोकतंत्र के कामकाज के बारे में पूछते हैं तो वे हमेशा लोकतंत्र से जुड़ी अपनी अन्य अपेक्षाओं का पुलिंदा खोल देते हैं और शिकायतों का अंबार लगा देते हैं। शिकायतों का बने रहना भी लोकतंत्र की सफलता की गवाही देता है। इससे पता चलता है कि लोग सचेत हो गए हैं और वे सत्ता में बैठे लोगों के कामकाज का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने लगे हैं। लोकतंत्र के कामकाज से लोगों का असंतोष जताना लोकतंत्र की सफलता को तो बताता ही है साथ ही यह लोगों के प्रजा से नागरिक बनने की गवाही भी देता है। आज अधिकांश लोग मानते हैं कि सरकार की चाल-ढाल पर उनके वोट से असर पड़ता है और यह उनके अपने हितों को भी प्रभावित करता है।