उन्नीसवीं सदी के दौरान राष्ट्रवाद एक ऐसी ताकत बन कर उभरा जिसने यूरोप के राजनीतिक और मानसिक जगत में भारी परिवर्तन ला दिये। इन परिवर्तनों से अंततः यूरोप के बहु-राष्ट्रीय वंशीय साम्राज्यों के स्थान पर राष्ट्र-राज्य का उदय हुआ। यूरोप में लंबे समय से एक ऐसे आधुनिक राज्य की गतिविधियाँ और विचार विकसित हो रहे थे जिसमें स्पष्ट रूप से परिभाषित क्षेत्र पर प्रभुसत्ता एक केंद्रीय शक्ति की थी। लेकिन राष्ट्र-राज्य में न केवल उसके शासकों बल्कि उसके अधिकांश नागरिकों में एक साझा पहचान का भाव और साझा इतिहास या विरासत की भावना थी। साझेपन की यह भावना अनंत काल से नहीं थी यह संघर्षों और नेताओं तथा आम लोगों की सरगर्मियों से निर्मित हुई थी। यह अध्याय उन विविध प्रक्रियाओं पर प्रकाश डालेगा जिनके तहत उन्नीसवीं सदी के यूरोप में राष्ट्र-राज्य और राष्ट्रवाद अस्तित्व में आए। राष्ट्रवाद की पहली स्पष्ट अभिव्यक्ति 1789 में फ्रांसीसी क्रांति के साथ हुई। जैसा कि आपको याद होगा, 1789 में फ्रांस एक ऐसा राज्य था जिसके संपूर्ण भू-भाग पर एक निरंकुश राजा का आधिपत्य था। फ्रांसीसी क्रांति से जो राजनीतिक और संवैधानिक बदलाव हुए उनसे प्रभुसत्ता राजतंत्र से निकल कर फ्रांसीसी नागरिकों के समूह में हस्तांतरित हो गई। क्रांति ने घोषणा की कि अब लोगों द्वारा राष्ट्र का गठन होगा और वे ही उसकी नियति तय करेंगे। प्रारंभ से ही फ्रांसीसी क्रांतिकारियों ने ऐसे अनेक कदम उठाए जिनसे फ्रांसीसी लोगों में एक सामूहिक पहचान की भावना पैदा हो सकती थी। पितृभूमि और नागरिक जैसे विचारों ने एक संयुक्त समुदाय के विचार पर बल दिया जिसे एक संविधान के अंतर्गत समान अधिकार प्राप्त थे। अतः एक नया फ्रांसीसी झंडा- तिरंगा चुना गया जिसने पहले के राजध्वज की जगह ले ली। इस्टेट जेनरल का चुनाव सक्रिय नागरिकों के समूह द्वारा किया जाने लगा और उसका नाम बदल कर नेशनल एसेंबली कर दिया गया। नयी स्तुतियाँ रची गईं, शपथें ली गईं, शहीदों का गुणगान हुआ- और यह सब राष्ट्र के नाम पर हुआ। एक केंद्रीय प्रशासनिक व्यवस्था लागू की गई जिसने अपने भू-भाग में रहने वाले सभी नागरिकों के लिए समान कानून बनाए। आंतरिक आयात-निर्यात शुल्क समाप्त कर दिए गए और भार तथा नापने की एकसमान व्यवस्था लागू की गई। क्षेत्रीय बोलियों को हतोत्साहित किया गया और पेरिस में फ्रेंच जैसी बोली और लिखी जाती थी, वही राष्ट्र की साझा भाषा बन गई। क्रांतिकारियों ने यह भी घोषणा की कि फ्रांसीसी राष्ट्र का यह भाग्य और लक्ष्य था कि वह यूरोप के लोगों को निरंकुश शासकों से मुक्त कराए। दूसरे शब्दों में, फ्रांस यूरोप के अन्य लोगों को राष्ट्रों में गठित होने में मदद देगा। जब फ्रांस की घटनाओं की खबर यूरोप के विभिन्न शहरों में पहुँची तो छात्र तथा शिक्षित मध्य-वर्गों के अन्य सदस्य जैकोबिन क्लबों की स्थापना करने लगे। उनकी गतिविधियों और अभियानों ने उन फ्रेंच सेनाओं के लिए रास्ता तैयार किया जो 1790 के दशक में हाॅलैंड, बेल्जियम, स्विट्जरलैंड और इटली के बड़े इलाके में घुसीं। क्रांतिकारी युद्धों के शुरू होने के साथ ही फ्रांसीसी सेनाएँ राष्ट्रवाद के विचार को विदेशों में ले जाने लगीं। नेपोलियन के नियंत्रण में जो विशाल क्षेत्र आया वहाँ उसने ऐसे अनेक सुधारों की शुरुआत की जिन्हें फ्रांस में पहले ही आरंभ किया जा चुका था। फ्रांस में राजतंत्र वापस लाकर नेपोलियन ने निःसंदेह वहाँ प्रजातंत्र को नष्ट किया था। मगर प्रशासनिक क्षेत्र में उसने क्रांतिकारी सिद्धांतों का समावेश किया था ताकि पूरी व्यवस्था अधिक तर्कसंगत और कुशल बन सके। 1804 की नागरिक संहिता जिसे आमतौर पर नेपोलियन की संहिता के नाम से जाना जाता है, ने जन्म पर आधारित विशेषाधिकार समाप्त कर दिए थे। उसने कानून के समक्ष बराबरी और संपत्ति के अधिकार को सुरक्षित बनाया। इस संहिता को फ्रांसीसी नियंत्रण के अधीन क्षेत्रों में भी लागू किया गया। डच गणतंत्र, स्विट्जरलैंड, इटली और जर्मनी में नेपोलियन ने प्रशासनिक विभाजनों को सरल बनाया, सामंती व्यवस्था को खत्म किया और किसानों को भू-दासत्व और जागीरदारी शुल्कों से मुक्ति दिलाई। शहरों में भी कारीगरों के श्रेणी-संघों के नियंत्रणों को हटा दिया गया। यातायात और संचार-व्यवस्थाओं को सुधारा गया। किसानों, कारीगरों, मजदूरों और नए उद्योगपतियों ने नयी-नयी मिली आजादी चखी। उद्योगपतियों और खासतौर पर समान बनाने वाले लघु उत्पादक यह समझने लगे कि एकसमान कानून, मानक भार तथा नाप और एक राष्ट्रीय मुद्रा से एक इलाके से दूसरे इलाके में वस्तुओं और पूँजी के आवागमन में सहूलियत होगी। लेकिन जीते हुए इलाकों में स्थानीय लोगों की फ्रांसीसी शासन के प्रति मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ थीं। शुरुआत में अनेक स्थानों जैसे हाॅलैंड और स्विट्जरलैंड और साथ ही कई शहरों जैसे- ब्रसेल्स, मेंज, मिलान और वाॅरसा में फ्रांसीसी सेनाओं का स्वतंत्रता का तोहफा देने वालों की तरह स्वागत किया गया। मगर यह शुरुआती उत्साह शीघ्र ही दुश्मनी में बदल गया जब यह साफ होने लगा कि नयी प्रशासनिक व्यवस्थाएँ राजनीतिक स्वतंत्रता के अनुरूप नहीं थीं। बढ़े हुए कर, सेंसरशिप और बाकी यूरोप को जीतने के लिए फ्रेंच सेना में जबरन भर्ती से हो रहे नुकसान प्रशासनिक परिवर्तनों से मिले फायदों से कहीं ज्यादा नजर आने लगे। अगर आप मध्य अठारहवीं सदी के यूरोप के नक़्शे को देखें तो उसमें वैसे ‘राष्ट्र-राज्य’ नहीं मिलेंगे जैसे कि आज हैं। जिन्हें आज हम जर्मनी, इटली और स्विट्जरलैंड के रूप में जानते हैं वे तब राजशाहियों, डचियों और कैंटनों में बँटे हुए थे, जिनके शासकों के स्वायत्त क्षेत्र थे। पूर्वी और मध्य यूरोप निरंकुश राजतंत्रों के अधीन थे और इन इलाकों में तरह-तरह के लोग रहते थे। वे अपने आप को एक सामूहिक पहचान या किसी समान संस्कृति का भागीदार नहीं मानते थे। अकसर वे अलग-अलग भाषाएँ बोलते थे और विभिन्न जातीय समूहों के सदस्य थे। उदाहरण के तौर पर, ऑस्ट्रिया-हंगरी पर शासन करने वाला हैब्सबर्ग साम्राज्य कई अलग-अलग क्षेत्रों और जनसमूहों को जोड़ कर बना था। इसमें ऐल्प्स के टिराॅल, ऑस्ट्रिया और सुडेटेनलैंड जैसे इलाकों के साथ-साथ बोहेमिया भी शामिल था जहाँ के कुलीन वर्ग में जर्मन भाषा बोलने वाले ज्यादा थे। हैब्सबर्ग साम्राज्य में लाॅम्बार्डी और वेनेशिया जैसे इतालवी-भाषी प्रांत भी शामिल थे। हंगरी में आधे लोग मैग्यार भाषा बोलते थे जबकि बाकी लोग विभिन्न बोलियों का इस्तेमाल करते थे। गालीसिया में कुलीन वर्ग पोलिश भाषा बोलता था। इन प्रभावशाली समूहों के अलावा, हैब्सबर्ग साम्राज्य की सीमा रेखाओं के भीतर भारी संख्या में खेती करने वाले लोग अधीन अवस्था में रहते थे- जैसे उत्तर में बोहेमियन और स्लोवाक, कार्निओला में स्लोवेन्स, दक्षिण में क्रोएट तथा पूरब की तरफ ट्रांसिल्वेनिया में रहने वाले राउमन लोग। ऐसा फर्क राजनीतिक एकता को आसानी से बढ़ावा देने वाला नहीं था। इन तरह-तरह के समूहों को आपस में बाँधने वाला तत्व, केवल सम्राट के प्रति सबकी निष्ठा थी।