दीवाली के अवसर पर हरीश अपने माता-पिता के साथ बाजार गया। उन्होंने उसके लिए कपड़े तथा जूते खरीदे। उसकी माँ ने बर्तन, चीनी, चाय व मृदा के दीप खरीदे। हरीश ने देखा कि दुकानें अत्यधिक सामान से भरी थी। चीजों को इतनी अधिक मात्रा में देखकर वह हैरान था। उसके पिता ने समझाया कि जूते, कपड़े, चीनी आदि बड़े उद्योगों में मशीनों द्वारा बनाए जाते हैं छोटे उद्योगों में बर्तन बनाए जाते हैं तथा दीप जैसी चीजें व्यक्तिगत तौर पर कारीगरों द्वारा घरेलू उद्योगों में बनाई जाती हैं। कच्चे पदार्थ को मूल्यवान उत्पाद में परिवर्तित कर अधिक मात्रा में वस्तुओं के उत्पादन को विनिर्माण या वस्तु निर्माण कहा जाता है। क्या आप जानते हैं- कागज लकड़ी से, चीनी गन्ने से, लोहा-इस्पात लौह-अयस्क से तथा एल्यूमिनियम बाॅक्साइट से निर्मित है। क्या आप यह भी जानते हैं कि कई किस्म के कपड़े ऐसे रेशों से बनते हैं जो रेशा उद्योग में बनते हैं। द्वितीयक कार्यो में लगे व्यक्ति कच्चे माल को परिष्कृत वस्तुओं में परिवर्तित करते हैं। स्टील, कार, कपड़ा उद्योग, बेकरी तथा पेय पदार्थों संबंधी उद्योगों में लगे श्रमिक इसी वर्ग के अंतर्गत आते हैं। कुछ व्यक्ति सेवाएँ प्रदान करने में रोजगार पाते हैं। इस अध्याय में हम द्वितीयक क्रियाओं के अंतर्गत विनिर्माण उद्योगों के विषय में पढ़ेंगे। किसी देश की आर्थिक उन्नति विनिर्माण उद्योगों के विकास से मापी जाती है। विनिर्माण उद्योग सामान्यतः विकास की तथा विशेषतः आर्थिक विकास की रीढ़ समझे जाते हैं, क्योंकि विनिर्माण उद्योग न केवल कृषि के आधुनिकीकरण में सहायक हैं वरन् द्वितीयक व तृतीयक सेवाओं में रोजगार उपलब्ध कराकर कृषि पर हमारी निर्भरता को कम करते हैं। देश में औद्योगिक विकास बेरोजगारी तथा गरीबी उन्मूलन की एक आवश्यक शर्त है। भारत में सार्वजनिक तथा संयुक्त क्षेत्र में लगे उद्योग, इसी विचार पर आधारित थे। जनजातीय तथा पिछड़े क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना का उद्देश्य भी क्षेत्रीय असमानताओं को कम करना था। निर्मित वस्तुओं का निर्यात वाणिज्य व्यापार को बढ़ाता है जिससे अपेक्षित विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है। वे देश ही विकसित हैं जो कच्चे माल को विभिन्न तथा अधिक मूल्यवान तैयार माल में विनिर्मित करते हैं। भारत का विकास विविध व शीघ्र औद्योगिक विकास में निहित हैं। कृषि तथा उद्योग एक दूसरे से पृथक नहीं हैं ये एक दूसरे के पूरक हैं। उदाहरणार्थ, भारत में कृषि पर आधारित उद्योगों ने कृषि पैदावार बढ़ोतरी को प्रोत्साहित किया है। ये उद्योग कच्चे माल के लिए कृषि पर निर्भर हैं तथा इनके द्वारा निर्मित उत्पाद- जैसे सिंचाई के लिए पंप, उर्वरक, कीटनाशक दवाएँ, प्लास्टिक पाइप, मशीनें व कृषि औजार आदि पर किसान निर्भर हैं। इसलिए विनिर्माण उद्योग के विकास तथा स्पर्धा से न केवल कृषि उत्पादन को बढ़ावा मिला है, अपितु उत्पादन प्रक्रिया भी सक्षम हुई है। आज वैश्वीकरण के युग में हमारे उद्योगों को अधिक प्रतिस्पर्धी तथा सक्षम होने की आवश्यकता है। केवल आत्मनिर्भरता ही काफी नहीं है। हमारी वस्तुएँ गुणवत्ता में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की हों तभी हम अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धा कर पाएँगे। पिछले दो दशकों से सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण उद्योग का योगदान 27 प्रतिशत में से 17 प्रतिशत ही है क्योंकि 10 प्रतिशत भाग खनिज खनन, गैस तथा विद्युत ऊर्जा का योगदान है। भारत की अपेक्षा अन्य पूर्वी एशियाई देशों में विनिर्माण का योगदान सकल घरेलू उत्पाद का 25 से 35 प्रतिशत है। पिछले एक दशक से भारतीय विनिर्माण क्षेत्र में 7 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ोतरी हुई है। बढ़ोतरी की यह दर अगले दशक में 12 प्रतिशत अपेक्षित है। वर्ष 2003 से विनिर्माण क्षेत्र का विकास 9 से 10 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से हुआ है। उपयुक्त सरकारी नीतियों तथा औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी के नए प्रयासों से अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि विनिर्माण उद्योग अगले एक दशक में अपना लक्ष्य पूरा कर सकता है। इस उद्देश्य से राष्ट्रीय विनिर्माण प्रतिस्पर्धा परिषद् की स्थापना की गयी है। उद्योगों की स्थापना स्वभावतः जटिल है। इनकी स्थापना कच्चे माल की उपलब्धता, श्रमिक, पूँजी, शक्ति के साधन तथा बाजार आदि की उपलब्धता से प्रभावित होती है। इन सभी कारकों का एक स्थान पर पाया जाना लगभग असंभव है। फलस्वरूप विनिर्माण उद्योग की स्थापना के लिए वही स्थान उपयुक्त हैं जहाँ ये कारक उपलब्ध हों अथवा जहाँ इन्हें कम कीमत पर उपलब्ध कराया जा सकता है। औद्योगिक प्रक्रिया के प्रारंभ होने के साथ-साथ नगरीकरण प्रारंभ होता है। कभी-कभी उद्योग शहरों में या उनके निकट लगाए जाते हैं। इस प्रकार औद्योगीकरण तथा नगरीकरण साथ-साथ चलते हैं। नगर उद्योगों को बाजार तथा सेवाएँ जैसे- बैंकिंग, बीमा, परिवहन, श्रमिक तथा वित्तीय सलाह आदि उपलब्ध कराते हैं। नगर केंद्रों द्वारा दी गई सुविधाओं से लाभांवित, कई बार बहुत से उद्योग नगरों के आस पास ही केंद्रित हो जाते हैं जिसे ‘समूहन बचत’ कहा जाता है। ऐसे स्थानों पर धीरे-धीरे बड़ा औद्योगिक समूहन स्थापित हो जाता है। स्वतंत्रता से पहले अधिकतर विनिर्माण उद्योगों की स्थापना दूरस्थ देशों से व्यापार पर आधारित थी जैसे- मुंबई कोलकाता व चेन्नई आदि। परिणामस्वरूप कुछ एक नगर औद्योगिक केंद्र के रूप में उभरे जो ग्रामीण कृषि पृष्ठप्रदेश से घिरे थे। किसी उद्योग की अवस्थिति का निर्धारण उसकी न्यूनतम उत्पादन लागत से निर्धारित होता है। सरकारी नीतियों तथा निपुण श्रमिकों की उपलब्धता भी उद्योगों की अवस्थिति को प्रभावित करती है।