हम सभी को उद्योग और कृषि की खनिज निक्षेपों और उनसे विनिर्मित पदार्थों पर भारी निर्भरता सुपे्रक्षित है। खनन योग्य निक्षेप की कुल राशि असार्थक अंश है, अर्थात् भू-पर्पटी का एक प्रतिशत। जिन खनिज संसाधनों के निर्माण व सांद्रण में लाखों वर्ष लगे हैं, हम उनका शीघ्रता से उपभोग कर रहे हैं। खनिज निर्माण की भूगर्भिक प्रक्रियाएँ इतनी धीमी है कि उनके वर्तमान उपभोग की दर की तुलना में उनके पुनर्भरण की दर अपरिमित रूप से थोड़ी है। इसीलिए खनिज संसाधन सीमित तथा अनवीकरण योग्य हैं। समृद्ध खनिज निक्षेप हमारे देश की अत्यधिक मूल्यवान संपत्ति हैं, लेकिन ये अल्पजीवी हैं। अयस्कों के सतत् उत्खनन से लागत बढ़ती है क्योंकि खनिजों के उत्खनन की गहराई बढ़ने के साथ उनकी गुणवत्ता घटती जाती है। आपने खनिज संसाधनों को सुनियोजित एवं सतत् पोषणीय ढंग से प्रयोग करने के लिए एक तालमेल युक्त प्रयास करना होगा। निम्न कोटि के अयस्कों का कम लागतों पर प्रयोग करने के लिए उन्नत प्रौद्योगिकियों का सतत् विकास करते रहना होगा। धातुओं का पुनः चक्रण, रद्दी धातुओं का प्रयोग तथा अन्य प्रतिस्थापनों का उपयोग भविष्य में हमारे खनिज संसाधनों के संरक्षण के उपाय हैं। ऊर्जा सभी क्रियाकलापों के लिए आवश्यक हैं। खाना पकाने में, रोशनी व ताप के लिए, गाड़ियों के संचालन तथा उद्योगों में मशीनों के संचालन में ऊर्जा की आवश्यकता होती है। ऊर्जा का उत्पादन ईंधन खनिजों जैसे - कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, यूरेनियम तथा विद्युत से किया जाता है। ऊर्जा संसाधनों को परंपरागत तथा गैर-परंपरागत साधनों में वर्गीकृत किया जा सकता है। परंपरागत साधनों में लकड़ी, उपले, कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस तथा विद्युत (दोनों जल विद्युत व ताप विद्युत) सम्मिलित हैं। गैर-परंपरागत साधनों में सौर, पवन, ज्वारीय, भू-तापीय, बायोगैस तथा परमाणु ऊर्जा शामिल किये जाते हैं। ग्रामीण भारत में लकड़ी व उपले बहुतायत में प्रयोग किये जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार ग्रामीण घरों में आवश्यक ऊर्जा का 70 प्रतिशत से अधिक इन दो साधनों से प्राप्त होता है लेकिन अब घटते वन क्षेत्र के कारण इनका उपयोग करते रहना कठिन होता जा रहा है। इसके अतिरिक्त उपलों का उपभोग भी हतोत्साहित किया जा रहा है क्योंकि इससे सर्वाधिक मूल्यवान खाद्य का उपभोग होता हैं जिसे कृषि में प्रयोग किया जा सकता है। परंपरागत ऊर्जा के स्रोत कोयला - भारत में कोयला बहुतायात में पाया जाने वाला जीवाश्म ईंधन है। यह देश की ऊर्जा आवश्यकताओं का महत्त्वपूर्ण भाग प्रदान करता है। इसका उपयोग ऊर्जा उत्पादन तथा उद्योगों और घरेलू जरूरतों के लिए ऊर्जा की आपूर्ति के लिए किया जाता है। भारत अपनी वााणिज्यिक ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु मुख्यतः कोयले पर निर्भर है। जैसा कि आप पहले से ही जानते हैं कि कोयले का निर्माण पादप पदार्थों के लाखों वर्षों तक संपीडन से हुआ है। इसीलिए संपीडन की मात्रा, गहराई और दबने के समय के आधार पर कोयला अनेक रूपों में पाया जाता है। दलदलों में क्षय होते पादपों से पीट उत्पन्न होता है, जिसमें कम कार्बन, नमी की उच्च मात्रा व निम्न ताप क्षमता होती है। लिग्नाइट एक निम्न कोटि का भूरा कोयला होता है। यह मुलायम होने के साथ अधिक नमीयुक्त होता है। लिग्नाइट के प्रमुख भंडार तमिलनाडु के नैवेली में मिलते हैं और विद्युत उत्पादन में प्रयोग किए जाते हैं। गहराई में दबे तथा अधिक तापमान से प्रभावित कोयले को बिटुमिनस कोयला कहा जाता है। वाणिज्यिक प्रयोग में यह सर्वाधिक लोकप्रिय है। धातुशोधन में उच्च श्रेणी के बिटुमिनस कोयले का प्रयोग किया जाता है जिसका लोहे के प्रगलन में विशेष महत्त्व है। एंथ्रेसाइट सर्वोत्तम गुण वाला कठोर कोयला है। भारत में कोयला दो प्रमुख भूगर्भिक युगों के शैल क्रम में पाया जाता है- एक गोंडवाना जिसकी आयु 200 लाख वर्ष से कुछ अधिक है और दूसरा टरशियरी निक्षेप जो लगभग 55 लाख वर्ष पुराने हैं। गोंडवाना कोयले, जो धातुशोधन कोयला है, के प्रमुख संसाधन दामोदर घाटी (पश्चिमी बंगाल तथा झारखंड), झरिया, रानीगंज, बोकारो में स्थित हैं जो महत्त्वपूर्ण कोयला क्षेत्र हैं। गोदावरी, महानदी, सोन व वर्धा नदी घाटियों में भी कोयले के जमाव पाए जाते हैं। टरशियरी कोयला क्षेत्र उत्तर-पूर्वी राज्यों- मेघालय, असम, अरुणाचल प्रदेश व नागालैंड में पाया जाता है। यह स्मरण रहे कि कोयला स्थूल पदार्थ है। जिसका प्रयोग करने पर भार घटता है क्योंकि यह राख में परिवर्तित हो जाता है। इसी कारण भारी उद्योग तथा ताप विद्युत गृह कोयला क्षेत्रों अथवा उनके निकट ही स्थापित किये जाते हैं। भारत में कोयले के पश्चात् ऊर्जा का दूसरा प्रमुख साधन पेट्रोलियम या खनिज तेल है। यह ताप व प्रकाश के लिए ईंधन, मशीनों को स्नेहक और अनेक विनिर्माण उद्योगों को कच्चा माल प्रदान करता है। तेल शोधन शालाएँ - संश्लेषित वस्त्र, उर्वरक तथा असंख्य रासायन उद्योगों में एक नोडीय बिंदु का काम करती हैं। भारत में अधिकांश पेट्रोलियम की उपस्थिति टरशियरी युग की शैल संरचनाओं के अपनति व भ्रंश ट्रैप में पाई जाती है। वलन, अपनति और गुंबदों वाले प्रदेशों में यह वहाँ पाया जाता है जहाँ उद्ववलन के शीर्ष में तेल ट्रैप हुआ होता है। तेल धारक परत संरध्र चूना पत्थर या बालुपत्थर होता है जिसमें से तेल प्रवाहित हो सकता है। मध्यवर्ती असरंध्र परतें तेल को ऊपर उठने व नीचे रिसने से रोकती हैं। पेट्रोलियम संरध्र और असरंध्र चट्टानों के बीच भ्रंश ट्रैप में भी पाया जाता है। प्राकृतिक गैस हल्की होने के कारण खनिज तेल के ऊपर पाई जाती है। भारत में मुम्बई हाई, गुजरात और असम प्रमुख पेट्रोलियम उत्पादक क्षेत्र हैं। अंकलेश्वर गुजरात का सबसे महत्त्वपूर्ण तेल क्षेत्र है। असम भारत का सबसे पुराना तेल उत्पादक राज्य है। डिगबोई, नहरकटिया और मोरन- हुगरीजन इस राज्य के महत्त्वपूर्ण तेल उत्पादक क्षेत्र हैं।