स्वतंत्रता के बाद भारत में तेजी से औद्योगीकरण और शहरीकरण हुआ और विकास के अवसर प्राप्त हुए। आजकल हर जगह बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ बड़े औद्योगिक घरानों के रूप में फैली हुई हैं। उद्योगों की बढ़ती हुई संख्या के कारण अलवणीय जल संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है। उद्योगों को अत्यधिक जल के अलावा उनको चलाने के लिए ऊर्जा की भी आवश्यकता होती है और इसकी काफी हद तक पूर्ति जल विद्युत से होती है। वर्तमान समय में भारत में कुल विद्युत का लगभग 22 प्रतिशत भाग जल विद्युत से प्राप्त होता है। इसके अलावा शहरों की बढ़ती संख्या और जनसंख्या तथा शहरी जीवन शैली के कारण न केवल जल और ऊर्जा की आवश्यकता में बढ़ोतरी हुई है अपितु इनसे संबंधित समस्याएँ और भी गहरी हुई हैं। यदि आप शहरी आवास समितियों या कालोनियों पर नजर डालें तो आप पाएँगें कि उनके अंदर जल पूर्ति के लिए नलकूप स्थापित किए गए हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि शहरों में जल संसाधनों का अति शोषण हो रहा है और इनकी कमी होती जा रही है। अब तक हमने जल दुर्लभता के मात्रात्मक पहलू की ही बात की है। आओ, हम ऐसी स्थिति के बारे में विचार करें जहाँ लोगों की आवश्यकता के लिए काफी जल संसाधन हैं, परंतु फिर भी इन क्षेत्रों में जल की दुर्लभता है। यह दुर्लभता जल की खराब गुणवत्ता के कारण हो सकती है। पिछले कुछ वर्षों से यह चिंता का विषय बनता जा रहा है कि लोगों की आवश्यकता के लिए प्रचुर मात्रा में जल उपलब्ध होने के बावजूद यह घरेलू और औद्योगिक अपशिष्टों, रसायनों, कीटनाशकों और कृषि में प्रयुक्त उर्वरकों द्वारा प्रदूषित है और मानव उपयोग के लिए खतरनाक है। आपने अनुभव कर लिया होगा कि समय की माँग है कि हम अपने जल संसाधनों का संरक्षण और प्रबंधन करें, स्वयं को स्वास्थ्य संबंधी खतरों से बचाएँ, खाद्यान्न सुरक्षा, अपनी आजीविका और उत्पादक क्रियाओं की निरंतरता को सुनिश्चित करें, और हमारे प्राकृतिक पारितंत्रों को निम्नीकृत होने से बचाएँ। जल संसाधनों के अतिशोषण और कुप्रबंधन से इन संसाधनों का ह्वास हो सकता है और पारिस्थितिकी संकट की समस्या पैदा हो सकती है जिसका हमारे जीवन पर गंभीर प्रभाव हो सकता है। हम जल का संरक्षण और प्रबंधन कैसे करें? पुरातत्त्व वैज्ञानिक और ऐतिहासिक अभिलेख बताते हैं कि हमने प्राचीन काल से सिंचाई के लिए पत्थरों और मलबे से बाँध, जलाशय अथवा झीलों के तटबंध और नहरों जैसी उत्कृष्ट जलीय कृतियाँ बनाई हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि हमने यह परिपाटी आधुनिक भारत में भी जारी रखी है और अधिकतर नदियों के बेसिनों में बाँध बनाए हैं। बाँध क्या हैं और वे हमें जल संरक्षण और प्रबंधन में कैसे सहायक हैं? परम्परागत बाँध, नदियों और वर्षा जल को इकट्ठा करके बाद में उसे खेतों की सिंचाई के लिए उपलब्ध करवाते थे। आज कल बाँध सिर्फ सिंचाई के लिए नहीं बनाए जाते अपितु उनका उद्देश्य विद्युत उत्पादन, घरेलू और औद्योगिक उपयोग, जल आपूर्ति, बाढ़ नियंत्रण, मनोरंजन, आंतरिक नौचालन और मछली पालन भी है। इसलिए बाँधों को बहुउद्देशीय परियोजनाएँ भी कहा जाता है जहाँ एकत्रित जल के अनेकों उपयोग समन्वित होते हैं। उदाहरण के तौर पर सतलुज-ब्यास बेसिन में भाखड़ा-नांगल परियोजना जल विद्युत उत्पादन और सिंचाई दोनों के काम में आती है। इसी प्रकार महानदी बेसिन में हीराकुड परियोजना जलसंरक्षण और बाढ़ नियंत्रण का समन्वय है। स्वतंत्रता के बाद शुरू की गई समन्वित जल संसाधन प्रबंधन उपागम पर आधारित बहुउद्देशीय परियोजनाओं को उपनिवेशन काल में बनी बाधाओं को पार करते हुए देश को विकास और समृद्धि के रास्ते पर ले जाने वाले वाहन के रूप में देखा गया। जवाहरलाल नेहरू गर्व से बाँधों को ‘आधुनिक भारत के मंदिर’ कहा करते थे। उनका मानना था कि इन परियोजनाओं के चलते कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था, औद्योगीकरण और नगरीय अर्थव्यवस्था समन्वित रूप से विकास करेगी। पिछले कुछ वर्षों में बहुउद्देशीय परियोजनाएँ और बड़े बाँध कई कारणों से परिनिरीक्षण और विरोध के विषय बन गए हैं। नदियों पर बाँध बनाने और उनका बहाव नियंत्रित करने से उनका प्राकृतिक बहाव अवरुद्ध होता है, जिसके कारण तलछट बहाव कम हो जाता है और अत्यधिक तलछट जलाशय की तली पर जमा होता रहता है जिससे नदी का तल अधिक चट्टानी हो जाता है और नदी जलीय जीव-आवासों में भोजन की कमी हो जाती है। बाँध नदियों को टुकड़ों में बाँट देते हैं जिससे विशेषकर अंडे देने की ऋतु में जलीय जीवों का नदियों में स्थानांतरण अवरुद्ध हो जाता है। बाढ़ के मैदान में बनाए जाने वाले जलाशयों द्वारा वहाँ मौजूद वनस्पति और मिट्टियाँ जल में डूब जाती हैं जो कालांतर में अपघटित हो जाती है। बहुउद्देशीय परियोजनाएँ और बड़े बाँध नए पर्यावरणीय आंदोलनों जैसे - ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ और ‘टिहरी बाँध आंदोलन’ के कारण भी बन गए हैं। इन परियोजनाओं का विरोध मुख्य रूप से स्थानीय समुदायों के वृहद स्तर पर विस्थापन के कारण है। आमतौर पर स्थानीय लोगों को उनकी जमीन, आजीविका और संसाधनों से लगाव एवं नियंत्रण देश की बेहतरी के लिए कुर्बान करना पड़ता है। इसलिए, अगर स्थानीय लोगों को इन परियोजनाओं का लाभ नहीं मिल रहा है तो किसको मिल रहा है? शायद जमींदारों और बड़े किसानों को या उद्योगपतियों और कुछ नगरीय केंद्रों को। गाँव के भूमिहीनों को लीजिए, क्या वे वास्तव में ऐसी परियोजनाओं से लाभ उठाते हैं? सिंचाई ने कई क्षेत्रों में फसल प्रारूप परिवर्तित कर दिया है जहाँ किसान जलगहन और वाणिज्य फसलों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इससे मृदाओं के लवणीकरण जैसे गंभीर पारिस्थितिकीय परिणाम हो सकते हैं। इसी दौरान इसने अमीर भूमि मालिकों और गरीब भूमिहीनों में सामाजिक दूरी बढ़ाकर सामाजिक परिदृश्य बदल दिया है। जैसा कि हम देख सकते हैं कि बाँध उसी जल के अलग-अलग उपयोग और लाभ चाहने वाले लोगों के बीच संघर्ष पैदा करते हैं। गुजरात में साबरमती बेसिन में सूखे के दौरान नगरीय क्षेत्रों में अधिक जल आपूर्ति देने पर परेशान किसान उपद्रव पर उतारू हो गए। बहुद्देशीय परियोजनाओं के लागत और लाभ के बँटवारे को लेकर अंतर्राज्यीय झगड़े आम होते जा रहे हैं।