बाजार में हमारी भागीदारी उत्पादक और उपभोक्ता दोनों रूपों में होती है। वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादक के रूप में, हम पहले वर्णित कृषि, उद्योग या सेवा जैसे क्षेत्रों में कार्यरत हो सकते हैं। उपभोक्ताओं की भागीदारी बाजार में तब होती है, जब वे अपनी आवश्यकतानुसार वस्तुओं या सेवाओं को खरीदते हैं। उपभोक्ता के रूप में लोगों द्वारा उपभोग किए जानेवाली ये अंतिम वस्तुएँ होती हैं। पिछले अध्यायों में हमने विकास को बढ़ावा देने के लिए जरूरी नियमों और नियंत्रणों या इसके लिए उठाये गए कदमों की आवश्यकता का वर्णन किया है। इनका महत्त्व असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की सुरक्षा के लिए उसी तरह हो सकता है, जिस तरह साहूकारों द्वारा लगाए जाने वाले उच्च ब्याज दर से लोगों को बचाने के लिए नियमों और नियंत्रणों की जरूरत होती है। इसी प्रकार से पर्यावरण की सुरक्षा के लिए नियमों एवं विनियमों की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, अनौपचारिक क्षेत्रों के साहूकार कर्जदार पर बंधन डालने के लिए तरह-तरह के दाँव-पेच अपनाते हैं। सामयिक ऋण के कारण वे उत्पादक को उत्पाद निम्न दर पर बेचने के लिए मजबूर कर सकते हैं। वे स्वप्ना जैसी महिला को ऋण चुकाने के लिए अपनी जमीन बेचने को विवश कर सकते हैं। इसी प्रकार, असंगठित क्षेत्र में काम करनेवाले बहुत से लोगों को निम्न वेतन पर कार्य करना पड़ता है और उन परिस्थितियों को झेलना पड़ता है, जो न्यायोचित नहीं होती हैं और प्रायः उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी होती हैं। ऐसे शोषण को रोकने के लिए और उनकी सुरक्षा हेतु हमने नियमों एवं विनियमों की बात की है। ऐसी कई संस्थाएँ हैं जिन्होनें यह सुनिश्चित करने के लिए लम्बा संघर्ष किया है कि इन नियमों का अनुपालन हो। बाजार में भी उपभोक्ताओं की सुरक्षा के लिए नियम एवं विनियमों की आवश्यकता होती है, क्योंकि अकेला उपभोक्ता प्रायः स्वयं को कमजोर स्थिति में पाता है। खरीदी गयी वस्तु या सेवा के बारे में जब भी कोई शिकायत होती है, तो विक्रेता सारा उत्तरदायित्व क्रेता पर डालने का प्रयास करता है। सामान्यतः उनकी प्रतिक्रिया होती हैः “आपने जो खरीदा है अगर वह पसंद नहीं है तो कहीं और जाइए।” मानो, बिक्री हो जाने के बाद विक्रेता की कोई जिम्मेदारी नहीं रह जाती। उपभोक्ता आंदोलन, जिसके बारे में हम आगे बात करेंगे, इस स्थिति को बदलने का एक प्रयास है। बाजार में शोषण कई रूपों में होता है। उदाहरणार्थ, कभी-कभी व्यापारी अनुचित व्यापार करने लग जाते हैं, जैसे दुकानदार उचित वजन से कम वजन तौलते हैं या व्यापारी उन शुल्कों को जोड़ देते हैं, जिनका वर्णन पहले न किया गया हो या मिलावटी/दोषपूर्ण वस्तुएँ बेची जाती हैं। जब उत्पादक थोड़े और शक्तिशाली होते हैं और उपभोक्ता कम मात्रा में खरीददारी करते हैं और बिखरे हुए होते हैं, तो बाजार उचित तरीके से कार्य नहीं करता है। विशेष रूप से यह स्थिति तब होती है, जब इन वस्तुओं का उत्पादन बड़ी कंपनियाँ कर रही हों। अधिक पूँजीवाली, शक्तिशाली और समृद्ध कंपनियाँ विभिन्न प्रकार से चालाकी पूर्वक बाजार को प्रभावित कर सकती हैं। उपभोक्ताओं को आकर्षित करने के लिए वे समय-समय पर मीडिया और अन्य स्रोतों से गलत सूचना देते हैं। उदाहरण के लिए, एक कंपनी ने यह दावा करते हुए कि माता के दूध से हमारा उत्पाद बेहतर है, सर्वाधिक वैज्ञानिक उत्पाद के रूप में शिशुओं के लिए दूध का पाउडर पूरे विश्व में कई वर्षों तक बेचा। कई वर्षों के लगातार संघर्ष के बाद कंपनी को यह स्वीकार करना पड़ा कि वह झूठे दावे करती आ रही थी। इसी तरह, सिगरेट उत्पादक कंपनियों से यह बात मनवाने के लिए कि उनका उत्पाद कैंसर का कारण हो सकता है, न्यायालय में लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। अतः उपभोक्ताओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए नियम और विनियमों की आवश्यकता है। उपभोक्ता आंदोलन का प्रारंभ उपभोक्ताओं के असंतोष के कारण हुआ, क्योंकि विक्रेता कई अनुचित व्यावसायिक व्यवहारों में शामिल होते थे। बाजार में उपभोक्ता को शोषण से बचाने के लिए कोई कानूनी व्यवस्था उपलब्ध नहीं थी। लम्बे समय तक, जब एक उपभोक्ता एक विशेष ब्रांड उत्पाद या दुकान से संतुष्ट नहीं होता था तो सामान्यतः वह उस ब्रांड उत्पाद को खरीदना बंद कर देता था या उस दुकान से खरीददारी करना बंद कर देता था। यह मान लिया जाता था कि यह उपभोक्ता की जिम्मेदारी है कि एक वस्तु या सेवा को खरीदते वक्त वह सावधानी बरते। संस्थाओं को लोगों में जागरुकता लाने में, भारत और पूरे विश्व में कई वर्ष लग गए। इसने वस्तुओं और सेवाओं की गुणवत्ता सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी विक्रेताओं पर भी डाल दिया। भारत में ‘सामाजिक बल’ के रूप में उपभोक्ता आंदोलन का जन्म, अनैतिक और अनुचित व्यवसाय कार्यों से उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने और प्रोत्साहित करने की आवश्यकता के साथ हुआ। अत्यधिक खाद्य कमी, जमाखोरी, कालाबाजारी, खाद्य पदार्थों एवं खाद्य तेल में मिलावट की वजह से 1960 के दशक में व्यवस्थित रूप में उपभोक्ता आंदोलन का उदय हुआ। 1970 के दशक तक उपभोक्ता संस्थाएँ वृहत् स्तर पर उपभोक्ता अधिकार से संबंधित आलेखों के लेखन और प्रदर्शनी का आयोजन का कार्य करने लगीं थीं। उन्होंने सड़क यात्री परिवहन में अत्यधिक भीड़-भाड़ और राशन दुकानों में होने वाले अनुचित कार्यों पर नजर रखने के लिए उपभोक्ता दल बनाया। हाल में, भारत में उपभोक्ता दलों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है।